Thursday, 3 May 2012

एक ख्वाब

एक ख्वाब मुझे एसा भी दे,
के कह पाऊ सब उस से मैं.
आँखों में बसी ख़ामोशी को,
कर पाऊ  बयां फिर उससे मैं.

अरसे से दिल के कोने में,
एक आरजू गुमसुम बैठी है,
ओढ़े चादर अरमानों की,
खोई खोई सी रहेती है.
बेताब बहुत वो रहेती है,
लब  पे मेरे बस आने को.
एक ख्वाब मुझे एसा भी दे,
बतलाऊ उस अफसाने को.

कुछ रंग जुदा इन आँखों के,
कुछ लुत्फ़ अलग उन बातों का.
देखा न किसी ने अब तक जो,
अंदाज़ अलग इस दिल का है.  
एक ख्वाब मुझे एसा भी दे,
मिलवाऊ इस दीवाने को.

खुद से तो अक्सर होती है,
पर बात अधूरी लगती है.
हैं गीत मेरे सूने कब से,
एक साज़ इन्हें दे गाने को,
एक ख्वाब मुझे एसा भी दे,
गाए वो मेरे तरानों को.

-अंकुर 

दिल की कलम से

फुर्सत 

चाहा तो बहुत  की मिल लें उन से,
वो एक लम्हा-ऐ-फुर्सत तलाश न कर सके.
हमे तो फुर्सत ही नहीं उन के ख्यालों से,
वो फुर्सत में भी हमारा ख्याल न कर सके.

हयात   

वो आए हमारे दोस्त खाने  में, रोशन हुई हयात  
रहे खामोश कहा कुछ ना , भला ये भी हुई कुछ बात.

मुद्दतों से तलाशा वो एक लम्हा, की हो मुलाकात,
मयससर हुआ मुद्दतों के बाद.
फनाह हो गया वो भी यूँ ही, ये भी हुई कोई बात.   
वो आए हमारे दोस्त खाने  में, रोशन हुई हयात.

इंतज़ार


खिला हुआ थ़ा दिल का गुलिस्तां  कभी,
उजड़ गया खिज़ा ए जुदाई में.

गुलों का खिलना मुश्किल है अब.
किसी बहार का अब हमे इंतज़ार कहाँ !

राह अब देखते नहीं हम उनकी,
मिलना लिखा होगा तो रास्ते मिल ही जाएँगे.

-अंकुर