Friday, 13 January 2012

नया दौर

चहकते  थे दराक्थों पर परिंदे कभी,
मर-मर के जंगलों में गुम है कही इंसान.
इस कद्र तेज़ रफ़्तार से चलती है ज़िन्दगी,
उंगली पकड़ कर चलना, वो ज़माना कुछ और था.

शोर है क्यूँ हर तरफ हर दिशा
मद्धम आवाज़ में मीठी सी वो लोरी
वो नज़ारा , नज़ारा कुछ और था.

लम्हे भी थे वो क्या,
एक पल में रूठते, पल भर में हंस दिए
पलों के वो आशियाने, पल वो कुछ और था

मचल उठाना वो तितली को देख कर,
आँखों में थे शरारत, वो क्या दौर था
हसरतें भढ  गई किस कद्र बेपन्हा,
नन्ही हतेलियाँ, मासूम सी ख्वाइश,
ज़माना, वो ज़माना कुछ और था.

भागने लगे है क्यूँ , आप से हे अब
कशमकश में है ज़हन , माथे पे क्यूँ शिकन
आँचल तले सुकून, सुकून कुछ और था.

ये क्या दौर है ,क्या वो दौर था.
बचपन का वो ज़माना,  ज़माना कुछ और था.

- अंकुर

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